जिसने 66 सीटों का यह गढ़ जीता..CM उसी पार्टी का:मालवा-निमाड़ में दिग्विजयकाल से लेकर शिव’राज’ तक 30 साल से एक ही ट्रेंड

मध्य प्रदेश विधानसभा के चुनावी साल में भाजपा और कांग्रेस ने मालवा-निमाड़ का किला जीतने के लिए पूरी ताकत झोंक दी है। कांग्रेस से पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह, उनके बेटे जयवर्धन सिंह ने यहां की हारी सीटों पर मैदान संभाल रखा है। दूसरी तरफ भाजपा से महासचिव कैलाश विजयवर्गीय अरसे बाद अब लोकल पॉलिटिक्स में सक्रिय दिखाई दे रहे हैं। इनके अलावा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के लगातार दौरे, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा की खरगोन सभा इसी तैयारी का हिस्सा है।
आखिर इस पूरी उठापटक के पीछे की वजह क्या है। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि मालवा-निमाड़ में भले ही 230 में से 66 सीटें हैं लेकिन इन सीटों से जीतने वाले विधायको का दखल प्रदेश की एक तिहाई सीटों पर पड़ता है। जिसने भी मालवा-निमाड़ जीतकर बढ़त बनाई उसकी ही प्रदेश में सरकार बनती है।
दिग्विजय सिंह से लेकर उमा भारती, शिवराज सिंह चौहान से लेकर कमलनाथ की जीत..सभी के मुख्यमंत्री बनने का ट्रेंड 30 साल से एक जैसा है। इतना ही नहीं ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ जिन विधायकों ने कांग्रेस को हाथ छोड़ बीजेपी का दामन थामे उनमें से 7 विधायक मालवा-निमाड़ क्षेत्र के ही हैं।
निमाड़ और आदिवासी जिलों में एकतरफा जीत की परंपरा
पिछले छह चुनावों को देखें तो यह ट्रेंड देखने को मिला है कि निमाड़ के जिलों और धार, झाबुआ बेल्ट में एक तरफा वोटिंग परंपरा रही है। जब भी यहां वोट पड़ते इन जिलों में थोकबंद सीटें एक ही पार्टी ले जाती है। 2018 के चुनाव में खरगोन, बड़वानी से धार तक थोकबंद कांग्रेस ने सीटें जीतकर सत्ता पाई। बाद में तख्तापलट में उससे छिटक गई। 2013 में यही कमाल भाजपा ने किया था।
BJP के लिए RSS एक्टिव, कांग्रेस ने दिग्विजय सिंह को उतारा
पिछले महीने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के राष्ट्रीय पदाधिकारी मालवा-निमाड़ की सीटों पर गोपनीय बैठकें ले चुके हैं। मालवा संघ का गढ़ भी माना जाता है। दूसरी तरफ कांग्रेस ने पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह और उनके बेटे जयवर्धन को कमान दे रखी है। कांग्रेस भी जीत के इस रास्ते को पहचानती है। यही वजह है कि दिग्विजय सिंह ने खुद इस बेल्ट को अपने हाथ में ले रखा है। कांग्रेस जहां पिछले 3 से 4 चुनाव लगातार हार रही है, वहां ज्यादा फोकस है।
कई आदिवासी बहुल सीटें
क्षेत्र की कई सीटें आदिवासी बहुल हैं। धार, झाबुआ, आलीराजपुर में सर्वाधिक हैं। इसके अलावा बड़वानी, खरगोन, खंडवा, देवास में आदिवासी बहुल सीटें आती हैं। भाजपा के राष्ट्रीय सह संगठन महामंत्री, संगठन महासचिव सहित अन्य पदाधिकारियों ने बैठकें लेना शुरू कर दिया है। कारण साफ है कि 2018 के पिछले चुनाव में भाजपा ने 15 साल में पहली बार मालवा-निमाड़ में मात खाने के बाद सरकार गंवा दी थी। अब इन सीटों पर भाजपा की किलाबंदी के लिए कांग्रेस ने कांतिलाल भूरिया, बाला बच्चन, उमंग सिंघार जैसे नेताओं काे सक्रिय होने के लिए कहा है।
आदिवासी सीटों में घुसपैठ कर चुका जयस तीन गुट में बंटा
2018 में कांग्रेस को मालवा-निमाड़ के आदिवासियों का वोट दिलाने वाला जयस इस बार तीन गुट में बंट चुका है। आदिवासी सीटों पर एक दशक से ध्यान केंद्रित करने वाले संगठन ने 2018 के चुनाव में मनावर सीट से अपना खाता खोला था। बीते 5 साल में संगठन में काफी उतार चढ़ाव आए। विरोध के स्वर इस तरह बुलंद हुए की गुट तीन हिस्सों में बट गया। कुछ साथी संगठन से किनारा भी कर गए हैं।
छोटे दलों को मालवा-निमाड़ से उम्मीदें
कांग्रेस और भाजपा यानी इन दोनों प्रमुख दलों के अलावा छोटे दल भी मालवा-निमाड़ से उम्मीद लगाए हुए हैं। हालांकि इन दलों का मैदानी असर नजर तो नहीं आ रहा फिर भी कुछ चुनिंदा सीटों का वोटों का समीकरण बिगाड़ने के आसार दिख रहे हैं। खास बात यह है कि यह सभी दल अपने-अपने स्तर पर प्रयास कर रहे हैं।
कक्काजी एक बार फिर सक्रिय
7 बरस पहले मालवा-निमाड़ से किसान आंदोलन खड़ा हुआ था। मल्हारगढ़ में आंदोलित किसानों पर पुलिस फायरिंग में किसानों की मौत के बाद किसान आंदोलन ने पूरे प्रदेश को अपने चपेट में ले लिया था। इस समय देश के 16 किसान संगठन एकजुट होकर मध्यप्रदेश में जम गए थे।
इनका नेतृत्व प्रदेश के किसान नेता शिवकुमार शर्मा कक्का-जी ने किया था। कक्का-जी एक बार फिर अंचल में सक्रिय हो गए हैं। हालांकि इनकी सक्रियता फिलहाल बेअसर मानी जा रही है।
बसपा के सामने अस्तित्व बचाने की चुनौती
7 विधानसभा चुनावों में बहुजन समाज पार्टी को प्रदेश में कुल वोटों का 5 से 6 प्रतिशत वोट प्राप्त होता रहा है। बसपा को 1993 में 7.05, 1998 में 6.15, 2003 में 7.26, 2008 में 9, 2013 में 6.29, 2018 में 5.01 और 2018 में 5.01 वोट प्रतिशत रहा। ग्वालियर-चंबल संभाग में पार्टी को सीटें भी प्राप्त हुई। मालवा-निमाड़ में भी 1 से 2 प्रतिशत वोट बसपा को मिलता रहा है। मौजूदा दौर में हाथी की चहलकदमी अंचल में नजर नहीं आ रही है। सीधे तौर पर कहें तो बसपा के सामने अस्तित्व बचाने की चुनौती खड़ी है।